लेखक -स्व भवभूति मिश्र
मैं भी इसी घोर कलियुग का आदमी हूं। सत्य युग का नहीं हूं और न त्रेता , द्वापर का। न मैनें राजा हरिश्चंद्र को देखा है और न राम या कृष्ण को। सुनी सुनाई बातों पर धारणा बना कर चल रहा हूं। जानता हूं , अपने युग में एक हीं हरिश्चंद्र हुए , एक हीं राम और अकेले कृष्ण। दुसरे होते , तो उनकी कहानियां अनुश्रुति के द्वारा अवश्य मुझ तक पहुँच गई होती। लोगों ने कहा , मैंने मान लिया , की वे महान थे।
तर्क से कोई निष्कर्ष निकलने वाला नहीं। नहीं तो मैं इस जगह भी तर्क के बल पर कोई न कोई निष्कर्ष निकाल हीं लेता। पुराने ऋषियों नें यहां भी मुझे चुप कर दिया।
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना
नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्
महाजनो येन गतः सः पन्थाः॥
तर्क की कोई अंतिम स्थिति नहीं , वह आगे हीं बढ़ता जाता है , कहीं रूकता नहीं। स्मृतियां , यादें या धर्मशास्त्र भी परस्पर भेद रखने वाली हैं। इस स्थिति में सच्चे धर्म का तत्व गुफा में छिपा हुआ है। इसलिए महान व्यक्ति जिस रास्ते से चलें – वही मार्ग सच्चा मार्ग है।
मानकर बैठा हूं कि महान व्यक्तियों के मार्ग का हीं अनुसरण करूंगा। पर महान कौन ? अपने देश , अपने वर्ग अपनी जाती में रावण भी महान थे और राम भी थे। अपनी अपनी संस्कृतियों की बात। अपनी दही को कोई खट्टा नहीं कहता।
यदि किसी का अंधानुकरण करूं , तो उपनिषदों के कवि चिल्ला कर कहते हैं –
अन्धेनेव नियमाना यथान्धाः।
– एक अंधा , जैसे अन्य अंधों को रास्ता दिखलाता जाए तब वह आंख वाल कौन ?
कबीर दास से पूछता हूं , कि वह आंखवाला कौन ? वे कहते हैं – मैं। पर जब वे कहते हैं –
नावं न जानो गांव का, बिन जाने कित जांव।
चलता चलता जग भया , पाव कोस पर गांव।।
तब लगता है , कहीं कुवें में भांग पड़ गई है। घूम कर देखता हूं , बिसाती की दुकानें खुली हुई है , इतिहास के लम्बे चौड़े बाज़ार में सब अपना अपना सौदा कर रहे हैं। योगी कहता है – मेरा माल अच्छा है , भक्त कहते हैं – मेरा माल बढ़िया है। सिद्धों की बात मत पूछिए , अच्छा अंजन बेचने में लगे हुए हैं। मैं बहुत उलझन में हूं – बाज़ार में माल बहुत हैं , वेश कीमती हैं – क्या खरीदूं क्या न खरीदूं ?
कालिदास की अलका का वर्णन पढ़ता हूं , तो जी ललक कर रह जाता है –
वित्त्तेशानां न च खलु क्यो यौवना दन्य दरित।
काश , मैं अलकापुरी में रहता , धनपति होता , जवानी के अलावे किसी अन्य अवस्था का सामना मुझे नहीं करना पड़ता। तो फिर जीवन पर्यन्त सुख का भोग , यौवन का भोग , सौंदर्य का भोग। कितने अच्छे वे दिन मेरे लिए होते।
इसी समय गौतम बुद्ध की वाणी सुनाई पड़ती है की – यहां सुख कहां ?दुःख हीं दुःख हैं , सभी सुखों की परिणीति दुःख में ही है। मेरे कान खड़े हो जाते हैं। सोचता हूं , कौन ठीक ? यह या वह ?
विचित्र उलझनों में फसा हुआ हूं , किसकी बातें मानूं ? पुराने स्वर फीके पड़ने लग गए हैं। पुराने लोगों को समझने के लिए जितनी कोशिशें करता हूं , सब बेकार होती जा रही हैं।
निदान, सोचने के लिए विवश होना पड़ रहा है , एक समय था , अनुकूल परिस्थिति थी , आदमी ने अपने समय के अनुसार सोचा , वह अपने युग के अनुसार चला और अपने युग का पुरुष हो गया। पर क्या वे सुविधाएं , परिस्थितियां और सामजिक परिवेश वे ही हैं, जो उन उन पुराने लोगों के सामने थीं ? उत्तर मिलता है – नहीं। तब तो यहीं न रूकना पड़ेगा – मैं मैं हूं , वे वे थे। बाइबिल के शब्दों में मुझे भी दुहराना पड़ेगा – जो मैं हूं , हूं।
आज की नजरों में मैं भी पुराना पड़ रहा हूं। यधपि रहन – सहन, खान – पान, वेश-भूषा आदि में अब भी अपने को जमाने का हीं आदमी समझता हूं। पर पता नहीं, आज के लड़के मुझे पुराना क्यों मानते हैं ? सोचता हूं, शायद मेरी प्रगति कहीं अवरुद्ध हो रही है , कहीं मैं रूक रहा हूं। मेरे विचारों से पुरानेपन की गंध आ रही है। बड़े असमंजस में हूं , क्या करूं ?
जिसे आप नया ज़माना कहते हैं, उस ओर देखता हूं , तो लगता है, हां इस जीवन में गति है , आगे की ओर तेज़ी से दौड़ भी है। कुछ नई पकड़ और पहुँच भी है। पर , देखा देखि और नकल करने की प्रविर्ती बढ़ती जा रही है। कहीं स्थिरता नहीं , कहीं शांति नहीं। सब कुछ रहने पर भी अभाव की कल्पना में लोग पिसते जा रहे हैं।
आज ज़माने के इस चौराहे पर खड़ा हूं। सोच रहा हूं – आगे बढ़ूं या पीछे हटूं ? कल के आदमी को पहचानने की कोशिश की तो हाथ लगा कुछ नहीं। उस आदमी ने अपने युग की सारी मान्यताओं को मान लिया। वह आगे बढ़ा गया और पावों के निचे की धरती खिसक गई। ज़माना तेज़ी से आगे बढ़ गया और आदमी पीछे रह गया। यही कारण है की त्रेता के राम , द्वापर में नहीं आये। द्वापर के कृष्ण कलियुग में नहीं हुए।
आज का आदमी और विवश है, क्योंकि वह अपने समय की सारी की सारी मान्यताओं और आदर्शों को अपने में समेट कर चलता है , पर , जमाना इतनी तेजी से आगे बढ़ जाता है कि वह पीछे छोड़ दिया जाता है। फिर , वह नए साहस से वर्तमान को पकड़ने की कोशिशें करता है , वह सफल भी होता है। तब तक वर्तमान भूतकाल बन जाता है और आदमी ? वह किंकर्तव्यमूढ़ विमूढ़ रह जाता है।
मैं भी वर्तमान की सारी समस्याओं से घिरा हुआ है। सारा परिवेश का वर्तमान का ही है। इसी में रह कर जीना चाहता हूँ और जी रहा हूँ। पर, क्या मैं आज का आदमी हूं ?