निवृति मार्ग के अनुयायी संसार को हेय दृष्टि से देखते हैं, इसके विषयों से उनकी विरक्ति रहती है और वे सब से अलग विलग रह कर अपनी मुक्ति की कामना और उसकी सिद्धि में प्रयत्नशील रहा करते हैं। ऐसे लोग ही संस्यासी होते हैं और उनसे ही बनता है – सन्यास मार्ग।

एक दूसरा मार्ग भी है, जो प्रवृति मार्ग कहा जाता है, इसके अनुयायी संसार को, विषय वस्तुओं को नितांत हेय नहीं मानते। वे इसी में रह कर अपना मुक्ति मार्ग बनाते हैं। इनकी अपनी मान्यता है कि यदि संसार कीचड़ है, तो इसमें धस कर ही अपने को कमल के समान खिला लेना चाहिए।
ये दोनों ही मार्ग अनादि काल से चलते चले आ रहे हैं। दोनों के अपने अपने विश्वाश हैं, अपने अपने रास्ते हैं। निवृति मार्ग के प्रमुख उदाहरण यदि जगद्गुरु शंकराचार्य हैं, तो प्रवृति मार्ग के राजा जनक। तंत्र मार्ग ने दोनों को अपनाया। पर यह विशेष रूप से झुका प्रवृति मार्ग की ओर। कुलार्णव तंत्र के अनुसार इसकी अपनी एक मान्यता है , जिसके अनुसार संसार में जिन्हीं वस्तुओं से पतन होता है, उन्हीं वस्तुओं से सिद्धि भी कही गई है।
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इस मान्यता को हम यूँ समझ सकते हैं की शंखिया विष है, जिसे खाने से मृत्यु हो सकती है। पर जब उसका संसोधन या मारन कर दिया जाता है, तब वही शंखिया जीवनदायिनी औषधि के रूप में परिवर्तित हो जाता है।
इसलिए तांत्रिक मानते हैं की संसार या उसके विषय और वस्तुओं का परित्याग न कर उन्हें ग्रहण करना चाहिए पर, यथोचित संशोधन और परिमार्जन के साथ। सोचा जा सकता है, आग से घर जलाया जा सकता है और उसी आग से रसोई भी बनाई जा सकती है। इस स्थिति में, आग अपने आप में न त्याज्य ही है और ग्राहय ही है। रह गई उपयोग करने वाले की नियत की बात।
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प्रविर्ती मार्गी तंत्र यह मान कर चलता है, कि संसार सत्य है, विषय – वस्तु सत्य है। सब कुछ सत्य है, असत्य कुछ नहीं है। व्यक्ति किसी भी वस्तु को अपनी इच्छा से न छोड़ सकता है और न ही जोड़ सकता है। वह यह मान कर चलता है कि जीवन और संसार का सम्बन्ध भी असत्य नहीं है। महामाया आद्याशक्ति की इच्छा से ही सब कुछ है और हो रहा है। कहा गया है –
प्रसूते संसारं जननि, जगतीं पालयति वा,
समस्तं क्षित्यादि प्रलय समये संहरति च।
इन सारी मान्यताओं को लेकर चलने वाला तंत्र मार्ग, आत्मशुद्धि, भूतशुद्धि और द्रव्यशुद्धि पर विशेष बल देता है। भले हीं उसकी शुद्धि का अपना ही प्रकार क्यों न हो ? तब फिर संसार और उसके विषयों और वस्तुओं के परित्याग का प्रश्न हीं कहाँ उठता है ?
तंत्र मार्ग इससे भी आगे बढ़ कर सोचता है। वह मानता है कि एक महाशक्ति है, वही सर्वोपरि सत्ता है। उसी का अपना ही परिवर्तित रूप यह सारा विश्व है और विश्व की समग्र विषय – वस्तु हैं। प्रत्येक जीवन और जीवन की उपभोग्य या सहायक वस्तुएं भी उसी का परिणत रूप है। देवी भागवत में कहा गया है कि , इस सृष्टि में जो सृष्टि के रूप में है, पालन में पालनी शक्ति है, संहार में वही रौद्री शक्ति है। यह संसार उसी महाशक्ति की क्रीड़ा है।
आज विज्ञान के सम्मुख यह विकट प्रश्न है कि एटम से एनर्जी निकलती है। तो एनर्जी ही परिणत हो कर एटम का रूप धारण कर गई है। इस प्रश्न पर वैज्ञानिकों का एक पक्ष निश्चित निर्णय ले चुका है। तांत्रिकों का शाक्तवाद मानता है, की शक्ति का परिणत रूप परमाणु है और परमाणुओं का ठोस संघात ही द्रव्य है।
धरित्री कीलालं शुचिरपि समीरोऽपि गगनं,
त्वमेका कल्याणी गिरिशरमणी कालि सकलम् ।
— कर्पूर स्तवराज
ऐ काली, महाशक्ति – तुम ही धरती हो, तुम ही जल हो, तुम ही वायु हो, तुम ही आकाश हो, समस्त पंचमहाभूतों के रूपों में तुम ही तो हो। दूसरी ओर यह भी है –
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभि-धीयते।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
— मार्कण्डेय पुराण
जो देवी, महाशक्ति, सभी प्राणियों में चेतना शक्ति के रूप में मानी गई हैं। मैं उसे नमस्कार करता हूँ।
जाड़ानां चैतन्य स्तवक मकरन्दोज्ज्वल झरी।
— सौंदर्य लहरी
कहते हुए जगद्गुरु शंकराचार्य ने महाशक्ति को अचेतनों में चेतन के रूप में माना है।
इस प्रकार की मान्यता के अनुसार एक ही वही महाशक्ति जड़ और चेतन, स्थावर और जंगम इन सभी रूपों में विभक्त है। तो जीवन और जीवनपभोग्य की वस्तु के रूप में भी तो वही है। ऐसी स्थिति में कौन किसका परित्याग करे? यही पहुंचकर तंत्र मत घोर प्रवृत्ति मार्गी बन गया है। भारतीय संतमत ने माया को हौवा बना कर खड़ा किया है। कबीर ने माया से सदा होशियार रहने के लिए व्यक्ति – व्यक्ति को चेताया है। यहां तक कहा है – माया महाठगिनी हम जानी, तिरगुण फांस लिए कर डोले, बोले मधुर वाणी।
वेदांत मत में अध्यासंवाद को मान्यता देकर माया की सत्ता स्वीकार की गई और उसे मुक्ति में बाधिका शक्ति के रूप में मान लिया गया। पता नहीं नारियों ने इन विचारकों के लिए क्या अपराध किया था कि यह माया की मूर्तिमयी प्रतीक के रूप में घोषित कर दी गई। पर, विचार कीजिए, लगेगा कि नारियों के लिए नर और नरों के लिए नारियां भी माया हैं। क्योंकि माया का धर्म है आकर्षण शक्ति। फिर इतिहास के लंबे अरसे में नारी ही नारियों को छोड़कर जंगल की ओर क्यों भागे? नारियां क्यों नहीं भागी ? लगता है कहीं कुएं में भांग पड़ी है.
तंत्रमत ने माया और नारी का यह हौवा नहीं खड़ा किया, उसने विनम्र शब्दों में प्रार्थना की-
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
– दुर्गासप्तशती
जो देवी, महाशक्ति सभी प्राणियों में मातृ रूप में स्थित है। मैं उसे नमस्कार करता हूं। आज की युवती, कल की माता होगी। उसके जीवन के चरम परिणीति मातृत्व में ही होती है।
तंत्र मत ने भी माया को माना, महामाया को माना, पर मातृ रूप में। जिसके प्रति उसकी ममता है, अपनापन है,मोह है, विराग नहीं है विभीषिका नहीं है। उसे आत्मीयता से स्वीकार करने की लालसा है, विभीषिका से भाग खड़ा होने की इच्छा नहीं। वह मानता है कि महाशक्ति नारी रूप में हैं, मातृरूप में हैं, व्यक्ति उसके महाजाल में नहीं है, उसके स्नेहमयी आंचल में है।
शाक्तमत मत मानता है कि नारी का सम्मान महामाया का सम्मान है, उसका अपमान, उसी महामाया का अपमान है। नारी का सम्मान उसके व्यक्तित्व और स्वाभिमान के सम्मान में है। विलासिता का खिलौना बनाना तो महामाया का अपमान ही है।
उसी का सुप्रभाव यह है कि राम के साथ सीता, कृष्ण के साथ राधा और शंकर के साथ गौरी की पूजा सर्वत्र प्रचलित है। शिव पुराण में तो यहां तक विभाजन किया गया है कि जितने पुरुष वर्ग में आते हैं सब शिव हैं और जितने नारी वर्ग में आते हैं सभी शक्ति हैं।
इतिहास के पन्नों में कुछ काले धब्बे अवश्य हैं, जहां वाममार्गी तांत्रिकों और महायानी बौद्धों ने नारी शक्ति के साथ खिलवाड़ किया है। पर वे समस्त तंत्रमत के प्रतिनिधि नहीं कहे जा सकते। उन्होंने तो प्रवृत्ति मार्गी को भी अंधेरे में लाकर छोड़ दिया है।वे आदर्श नहीं हैं, अपवाद अवश्य माने जा सकते हैं।
तंत्र मार्ग उपासना का एक व्यवस्थित मार्ग है। मंत्र और यंत्र तो उसमें सहायक हैं। उपासना के लिए प्रमुखता महाशक्ति को ही दी गई है, उपासना के साधन भले हीं जो कुछ हों। कल्पना कीजिए, आपने एक अतिथि को अपने घर आमंत्रित किया, अच्छी मिठाइयां खिलाई, फल खिलाए, चाय पिलाई। अतिथि संतोष हुआ, चला गया। यदि आप ने कमर कस हीं ली है, कि शराब कबाब से ही उसकी खातिरदारी करुं, तो फिर आप जानें या अतिथि जानें।
तंत्रमत में भी कुछ ऐसी ही बातें हो गई हैं। इसलिए उसमें दो मार्ग हो गए दक्षिण मार्ग और वाम मार्ग। दक्षिण मार्गी सात्विक वस्तुओं से पूजन करते हैं और वाममार्गी तामस चीजों से। समझ में नहीं आता कि देवी को देवी रूप में न रहने दे कर लोग आसुरी रूप में क्यों ले जाते हैं?
यहां तक जो बातें हुई वह उच्च स्तर के तंत्र की हैं। जिसमें विचारणाओं के लिए काफी गुंजाइश है। इनमें अनेक मत मतांतर हैं, प्रौढ़ अन्वेषण हैं। गंभीर अध्ययन हैं। सब कुछ है, क्योंकि यह अपने आप में उच्च भी है और व्यापक भी है।
दूसरा एक और तंत्र मार्ग है, जो निम्नस्तरीय है, जिसका उद्देश्य है, मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तंभन और विद्वेषण। उसका मार्ग अघोर है और लक्ष्य निम्नगामी। उसकी चर्चा भी व्यर्थ है और मस्तिष्क में भ्रम, संदेह और विकार उत्पन्न करने वाली। इसलिए इसे यहीं समाप्त करता हूं।