पता नहीं, श्यामल वर्ण के प्रति इतना विशिष्ट आकर्षण क्यों रहा, कि उपासकों ने अपने उपास्यों को इसी रंग से रंजित देखने में विशेष रूचि दिखलाई ? वैष्णवों के कृष्ण और राम, शाक्तों की काली, इसी विशेष वर्ण में रंजित ही नहीं, अनुरंजित और अतिरंजित भी हैं। कहा जाता है, सत्व, रज और तम इन तीन गुणों के अपने-अपने विशेष रंग हैं, तम का रंग काला है। संभवतः, तमस के आवरण में छिपे जीवन और सौंदर्य में, जो महासत्य लोगों को प्रतीत हुआ, उसे ही अपने उपासकों में आरोपित किया। भारतीय कला की अपनी एक विशेषता यह भी है, कि आवरण से आवृत सौंदर्य ही उसे विशेष सुरुचि कर लगा।नग्न सौंदर्य को तो इसने बहुत ही कम स्थान दिया है। लगता है, भगवती काली के घटन में बहुत कुछ ऐसी ही बात रही होगी, जिससे अनुभावकों ने अनुभूत किया, पाया कि ज्योतिर्मयी तेजस्विनी महाशक्ति तमस के परदे के पीछे हैं, वही तो काली हैं।
भगवती काली की मूर्ति योजना में कला का निखार है। परस्पर विरोधी भाव से गठित यह व्यक्तित्व अपने आप में अनुपम है, विलक्षण है। ऐसे ही परस्पर विरोधी भावों का एकत्र संतुलन और सामंजस्य से जहां हो, वहां उच्चतम कला अभिव्यक्त होती है, ऐसा कलाविद मानते हैं। काली के ध्यान के क्रम में ही बतलाया गया है कि वे करालस्या हैं, कराल वंदना हैं, साथ हीं उनके बदन पर हास्य भी है। वे रिपुओं के लिए भयंकरी हैं और भक्तों के लिए शुभंकरी भी हैं। उनके चार हाथ हैं, जिनमें बाएं दो हाथों में कृपाण और छिन्नमुंड हैं। दाहिने दो हाथों में, एक में अभय मुद्रा है और दूसरे में वरद मुद्रा है। अर्थात दक्षिण भाग शुभंकर है और वाम भाग भयंकर है। परस्पर विरोधी स्थितियों का सामंजस्य यहां है।
प्रचंड शक्ति के संग अभिव्यक्त होने वाले इस जीवन में असीम सौंदर्य है, सुषमा है। और अंतर में उद्वेलित व अखंड चिन्मय रस है, जो रतासक्त बनाए हुए है। ऐसी स्थिति में चिर यौवन, शक्तिमय जीवन, असीम सुषमा और निरतिशय आनंद से परिपूरित भगवती काली की मूर्ति भक्तों के लिए रोचक तो है ही, कलापारखियों के लिए भी कम आकर्षण का विषय नहीं है।
नर और नारी का परस्पर रमण यद्यपि दैहिक और आंगिक चेष्टा ही है, पर, यह आंतरिक रतिभाव का ही प्रतिफलन है। इस प्रकार, रतासक्तता का मूल उभय स्थान हृदय है, जीवन है, जिसमें रतिभाव उल्लासित रहता है। कहना नहीं होगा, भगवती काली के इस उद्दाम रयौवन और जीवन में जो रतासक्तता है, वह बाल्य रुप से भले ही कुछ हो या ना हो, आंतरिक रुप से तो बहुत कुछ है ही, इस प्रक्रिया में उनके आंतरिक सौंदर्य की अभिव्यक्ति है, जो अपने में नारी सुलभ भाव है, महाकवि कालिदास ने जगत के माता-पिता गौरी शंकर की वंदना के क्रम में कहा है की वाणी और अर्थ जिस तरह परस्पर संयुक्त हैं, ये भी उसी प्रकार परस्पर संयुक्त हैं। सूक्ष्मतः देखने पर यही लगता है कि वाणी और अर्थ में यदि रतासक्तता है, और परस्पर ये घुले मिले हैं, तो काली और काल, महाकाली और महाकाल में भी इसी प्रकार की कुछ रतासक्तता होनी चाहिए।
शक्ति से शिव का आविर्भाव है, और शिव से शक्ति का। दोनों का एक दूसरे में लय भी है। यही लय, वह परम रतासक्तता है, जिसे स्थूल व्यवहार में कवियों और भक्तों नें प्रयुक्त किया है। माता और पिता की रतासक्तता, जीव के जगत में आगमन का कारण हुआ करती है। यह स्वयं पवित्र भाव है, क्योंकि सृष्टि का आदि कारण है, ऐसी स्थिति में जगजननी को जगतपिता के प्रति रतासक्तता इस महान सृष्टि का मूल है और वह स्वयं वंदनीय भाव है। संतों की सुरति और नीरति शब्द से समन्वय रखने वाले लोगों की दृष्टि में इनकी यह रति भी सुरति, सुरत के समकक्ष होकर शिवो शक्ति की शिवोन्मुखता और शिव को शलयुन्मुखता को ही घोषित करता है।
शक्ति को इच्छा – ज्ञान कलात्मिका के रूप में स्वीकार किया गया है। भगवती काली क्रियात्मिका शक्ति के रूप में लोगों ने माना है। इसका अर्थ यह नहीं होता कि इच्छा और ज्ञान का लेश मात्र भी इनमें नहीं है।यह कह सकते हैं कि क्रिया की प्रधानता इनमें है, इच्छा और ज्ञान अब गौण रूप से हैं। फिर भी इन्हें भक्त इन्हें ज्ञान निलय और कलात्मिका के रूप में अंगीकार किए हुए हैं। इसलिए काली से मुक्ति और भुक्ति, इन दोनों की आशा भक्तों को है।
काल को संहार मूर्ति लोगों ने माना है। काली दूस्मि लोकपय कृत प्रवृद्ध – कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं परमात्मा रूप में अपने को काल माना है।कालः सृजति भूतालि, कालः संहरते जगत – पर आस्था रखने वाले काल को ही सृष्टि, धाता और क्षयकृत मानते हैं। ऐसी स्थिति में काली आदिकाल की शक्ति हैं, तो यह भी सृष्टिकर्ता, स्थिति कारिणी और संहारमयी हैं। बल्कि इस दृष्टिकोण से यह भी आधा प्रकृति हैं। पुराण पुरुष हैं। पुरुष अध्यक्ष हैं, प्रकृति कार्यकारिणी हैं। गीता में भी कहा गया है –
मयाध्यक्षेण प्रकृति सचारचराम ।
हेतुनानेन कौन्तेय, जगत विपरिवर्त्तते ।
प्रकृति और पुरुष अनादि और अनंत माने गए हैं। अतः काल और काली भी अनादि हैं, अनंत हैं। द्वैतवादी विचार है।
शाक्त द्वैतवाद के अनुसार पराशक्ति आद्या शक्ति हैं। वे ही महाकाली हैं। उन्हीं से काली और शिव की उत्पत्ति हुई है। अर्थात पराशक्ति, स्वयं अपरा शक्ति का सृष्टि में कारण बनी। कहा जा सकता है कि यहां विपरिणामन है। पराशक्ति, अपराशक्ति के स्वरूप में विपरिणित हो गई, जैसे दूध दही के रूप में, पानी बर्फ के रूप में। ऐसी स्थिति में सोचा जा सकता है, जो महाकाली हैं, वही काली हैं। जो शक्ति हैं, वे ही शिव हैं।
भक्तों ने भगवती काली को, सच्चिदानंद मयी मां कहकर सदा पुकारा है। अतः यह महाशक्ति अपने मूल रूप में सतमयी, चिन्मयी और आनंदमयी हैं। ऐसी स्थिति में भगवती काली की मीमांसा के प्रसंग में सोचना पड़ेगा कि शक्ति शब्द विशिष्ट अर्थ में व्यवहृत है, क्षमता, सामर्थ्य और पावर, कहीं अर्थ में नहीं है। बल्कि ब्रह्मा का पर्यायवाची है।
कला विवेचना के प्रसंग में पराशक्ति स्वयं अमृत कला हैं, षोडशी कला है। इसलिए शेष पंचदश कलाएं तो उन्हीं के प्रस्तर हैं। इसलिए यह कलात्मिका हैं। कलना और कला विशेषतः पर्यायवाची शब्द हैं। काली कलात्मिका हैं, जगत का कलन और आकलन इनका अपना कर्म है। इसलिए समस्त सृष्टि का लेखा-जोखा भी इनके मत्थे है। शिव तो द्रष्टा मात्र हैं, साक्षी हैं। एक दृष्टिकोण यह भी है। पर जब अमृत कला के रूप में इन्हें स्वीकार करते हैं तो विश्व सृष्टि में जहां कहीं भी अमरता दृष्टिगत होती है, ये ही अमृता वहां हैं और अमृता शक्ति के रूप में विद्यमान हैं। लगता है विश्वप्रकृति रूप महासमुद्र के मंथन के क्रम में देवताओं ने इसी अमृता शक्ति को प्राप्त किया होगा।
प्राणों में अमर तत्व कहीं छिपा हुआ है, जो तत्व जन्म लेता है, शरीर परिवर्तन करता है, वही तत्व अमृता शक्ति के रूप में है। पंचमहाभूतों के मूल में उनकी सत्ता रह जाती है।जो परिवर्तन करता है, वही तत्व अमृता शक्ति के रूप में है। पंचमहाभूतों के मूल में भी वही शक्ति है, जिससे वे तत्व विद्यमान रह जाते हैं। सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप में भी उनकी सत्ता रह जाती है।
धरित्री कीलालं शुचिरपि समीरो अमि गगनम
त्वमेका कल्याणी गिरीश रमणी, कहलि सकलम।
-- कर्पूर स्तोत्र
ऐ काली, कल्याणी, शंकर की रमणी : तुम ही धरती हो, जल हो, अग्नि हो, वायु हो और आकाश हो, अर्थात सकल विश्व के रूप में तुम ही हो। यहां अभिप्राय यह है कि भगवती काली महाशक्ति हैं, उन्हीं के परिवर्तित रूप यह सारे विश्व प्रपंच हैं। मान्यता है, सूक्ष्म का परिवर्तित रूप ही स्थूल है, तो वह महाशक्ति सूक्ष्माति सूक्ष्मतर हैं, उन्होंने ही अपने को इस स्थूल रूप में परिणित कर लिया है। वह स्वयं परमात्मा हैं।
यस्मिन सर्व, यतः सर्व, यः सर्व, सर्वतश्च यः ।
यस्य सर्वमयी नित्यं, तस्मै सर्वात्मने नमः ।
-- योगवशिष्ठ
जिसमें यह सब कुछ : विश्व प्रपंच है। जिससे यह सब : हुआ है, जो स्वयं सब हैं, सब में जो है जो है, जो सर्वमय सदा है, उस परमात्मा को नमस्कार है। वस्तुतः सर्वात्मा और विश्व में अभेद है।
सूक्ष्म में के पर्यालोचन के क्रम में कोई भी असीम सत्ता तक ही पहुंचेगा। पर शाक्ता द्वैत वादियों ने जिस अद्वैत की प्रतिष्ठा की, उसमें स्पंद, क्रिया, चैतन्य और आनंद की समरस अनुभूति अंत में रह जाती है। महाशक्ति की उपासना में व्यक्ति स्वयं शक्तिमान हो उठता है।
जब उपासक किसी स्थूल मूर्ति की उपासना करने लगता है, तो पहले वह देवता का ध्यान करता है, पूजन करता है, प्रतिष्ठा करता है।पीछे सोचता है कि जिस रूप का मैं चिंतन करता हूं उसमें शक्ति है। तब उस शक्ति की खोज में चलता है। यहीं वह स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ता है। वस्तुतः स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रयाण में ही उपासना का रहस्य है। भगवती काली की उपासना में यही तथ्य है। उनके भी अंग अंग हैं, यही तथ्य है। उनके भी अंग अंग हैं, आयुध हैं, वाहन हैं अपना परिवार है। परंतु, सूक्ष्म में सब का लय उन्हीं में है। तब वे एक महाशक्ति हैं, भक्त का लय जब उनमें हो जाता है, तो यही उपासना अपनी साध्या अवस्था में पहुंच जाती हैं।