भगवती महालक्ष्मी सुख – समृद्धि की देवी मानी जाती हैं। इनके ध्यान के प्रसंग में जो मूर्ति कल्पित की गई है, वह सर्वांग सुन्दर और मनोहारिणी है। आकृति पर सुख – समृद्धि से भरी स्पष्टता है, गंभीर निश्चिंतता है। स्वर्ण वर्ण की गोराई इनमे हैं। दो गज स्वर्ण कलसों से इनका अभिषेक कर रहे हैं, ये कमल कुसुम के आसान पर आसीन हैं। सामान्यतः, सोचा जा सकता है, कि कोमल कुसुम पर बैठने वाली देवी स्वयं कितनी सुकुमार और भारहीन हो सकती हैं ? भारतीय संस्कृति में फूलों में कमल और पशुओं में हाथी को लक्ष्मी का चिन्ह या प्रतिनिधि के रूप में अंगीकार किया गया है, अपनाया गया है, अतः ये राजचिन्हों में स्वीकृत किये जा चुके हैं।
यातायात के साधनों में एक साधन उल्लू है। जो वस्तुतः असुंदर पक्षी है। यह एक अर्थ रखता है की समृद्धि और सौंदर्य की अधिसठात्री देवी की छाया में न तो कोई न तो कोई असुंदर है और न कोई अनावग्रह। जो इनका वाहक बना, वही सुंदर हो गया, समृद्धि से भरपूर हो गया। दूसरी बात यह भी है, कि इनकी दृष्टि में असुंदर पक्षी उल्लू और सुंदर कुसुम-कमल दोनों के सामान स्थान हैं। अतः संसार पक्ष में दोनों प्रकार के व्यक्ति इनके स्नेह भाजन हैं, जो सुंदर हैं वो भी और जो असुंदर हैं वो भी। कौन त्याग्य है ? और कौन ग्राह्य है ? संसार इसकी मीमांसा करता रहे। इन्हें इससे कोई मतलब नहीं है, इनकी दयामयी दृष्टि में तो सब के लिए समभाव है।
हाथी इनके लिए प्रिय है। यद्धपि पशुता का पूर्ण विकास उसमें है, पर सूझ बुझ में वह अपने आप में असाधारण है, असमान्य है। वह महत रखता है। अपने बल पर पूरा भरोषा रखता है। किसी की चाटुकारिता उसे पसंद नहीं। भर्तृहरि ने उसके बलि गुण पर रीझ कर कहा है –
कुत्तों और हाथी में भेद है। कुत्ता अपने पालक के चरणों पर लोटता है – केवल एक अन्न के लिए। पर, हाथी पालक को गंभीर भाव से देखता है, खुसामद कराता है और तब उठ कर खाता है। इसप्रकार, स्वाभिमानता उसमें विशिष्ट गुण है। अतः, स्वाभिमानी सूझ बूझ के व्यक्ति लक्ष्मी का राज्याभिषेक किया करते हैं, वे दूसरों को सिंघासन पर बिठलाते हैं, स्वयं नहीं बैठते। ऐसे जन लक्ष्मी के प्रिय पात्र हुआ करते हैं।
स्वर्ण शब्द अपना विशिष्ट अर्थ रखता है , जिसका मतलब है – जो जुट सके और जो घट सके। जुटना और घटना जिसका सामान्य गुण हो, स्वर्ण है, वही सोना है। दुसरे शब्दों में इसे सुवर्ण भी कहा जाता है, क्योंकि इसका वर्ण, रंग सुंदर है, अच्छा है। भगवती लक्ष्मी का वर्ण सोने का माना गया है। श्रीसूक्त में कहा गया है – लक्ष्मी हिरण्य, सोने के वर्ण की हैं। सोने के अपने कुछ गुण हैं, जिसके कारण सोना आदमी में इतना लोकप्रिय हो उठा है। लक्ष्मी का यह प्रिय है, अतः सुवर्ण प्रतिमा में लक्ष्मी की पूजा का विधान सर्वत्र है।
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यह तो उनके परिवेश की बात हुई, स्वयं लक्ष्मी क्षीर सागर से समुद्र मंथन के क्रम में निर्गत हुईं। अमृत के लिए देव दानवों नें समुद्र मंथन किया, पर पहले लक्ष्मी हीं निकलीं। इस पौराणिक प्रसंग में यह तथ्य छिपा है, की सुख – समृद्धि पहले चाहिए। तब चाहिए अमरता। इनके बिना जीवन भी भार है।
कलात्मिका उपनिषद के अनुसार आदिदेव की महाशक्ति में महामाया हैं।
कहते हैं की आदिदेव में प्रेरणा जगी कि सृष्टि हो, और सृष्टि हुई। इस सृष्टि का मूल कारण बनीं – महामाया। सोचा जा सकता है कि यह प्रेरणा शक्ति, जो विष्णु में उतपन्न हुईं, वे हीं महामाया है। आगे चल कर सृष्टि का प्रपंच विस्तार हुआ। वे ही महामायासमस्त सृष्टि या विश्व प्रपंच के रूप में परिणत हुईं। अतः यह सारा विश्व प्रपंच तो उन्हीं का परिवर्तित रूप है। इसलिए इसमें जो आकर्षण है, अपने प्रति जो सम्मोहन है , अपने में सब का वशीकरण है। वह तो भगवती महामाया का हीं प्रसाद है।
इसी लिए संसार से वैराग्य ग्रहणकर पलायन करने वाले व्यक्तियों का संसार से तब तक निस्तार नहीं है, जब तक महामाया की कृपा न हो और ये अपने समस्त बंधनों से व्यक्ति को मुक्ति न दे दें। इसी सुरक्षा पर ध्यान रखते हुए वैष्णवों के साथ लक्ष्मी, राम के साथ सीता और कृष्ण के साथ राधा की उपासना अनिवार्य कर दी गई । विश्व के समस्त संयोजक तत्व महामाया की हीं अभिवयक्ति हैं।
माना गया कि जीवन में ज्योति, अंग अंग में कांति, तेजमय पिंडों में दीप्ती या जहाँ कहीं भी जो चमक हम देख रहे हैं, वे महामाया भगवती की हीं चमक हैं, तेज़ हैं। जिस समय वे अपना तेज़ समेट लेती हैं, जड़ और और चेतन निस्तेज हो जाते हैं। वे ही महामाया संसार में आकृष्ट कर भोग कर्ता बनाती है। और इससे छुटकारा देकर महामुक्ति प्रदान करती है।
स्मरण रहे, शाक्त भावना में शक्ति को स्वतंत्र स्वरूप में स्वीकार किया गया है। वे सांख्य मत की प्रकृति के समान कहीं भी जड़ नहीं मानी गई है। इसलिए महाशक्ति सब कुछ कर सकने में स्वतंत्र है, और सर्वसमर्थ भी हैं। महामाया भगवान् विष्णु की शक्ति हैं, इसका अर्थ यह नहीं मानना चाहिए कि वे विष्णु पर आधारित हैं और विष्णु के अधीन हैं। बल्कि इसके ठीक विपरीत स्थिति यह है की वे ही शक्ति हैं, जिनके कारण आदिदेव शक्तिमान हैं। आदिदेव की सत्ता तक महाशक्ति पर ही निर्भर है। महाशक्ति माया के अधीन आदिदेव हैं।
पुराणों के अनुसार विष्णु स्थिति के देवता हैं। अतः, इस विश्व प्रपंच की जो स्थिति है, वह विष्णु के कारण है। वे हीं इसके भरण पोषण कर्ता हैं। पर, भगवती महामाया वह महाशक्ति हैं, जो जगधात्री कही जाती हैं। जगत का धारण, भरण, पोषण सब इन्हीं के बल पर हैं। ये ही वे शक्ति हैं, जिनके बल पर विष्णु सब कर पाते हैं। पर, विष्णु के इस महाकर्म के मूल में भी वे महाशक्ति हैं।
जगत की सत्ता हीं चिति शक्ति का शरीर है। इसलिए माना जा सकता है, कि जो विश्व प्रपंच है, वह तो उस महामाया का शरीर ही है, इसकी सत्ता उसका सूक्ष्म स्वरूप है। मातृ स्वरूपिणी महामाया बोधगम्य है, बुद्धिगम्य तो वे हैं पर केवल सूक्ष्म रूप में। जगत का धारक तत्व ही धर्म है, इस दृष्टि से वे धर्ममयी हैं। इसी शक्ति के बल पर विष्णु धर्म की रक्षा के लिए समय समय पर संसार में अवतरित होते रहते हैं।
कबीर ने अपने संतमत के अनुसार माया का आतंक प्रदर्शित किया है। इस माया के आतंक से आतंकित जनों ने, न जाने, कितनी संख्या में, रोते बिलखते शिशुओं को छोड़ा, सर्वस्व समर्पित कर जीवन दान करनेवाली नारियों का परित्याग कर दिया। फिर भी वे माया के चंगुल से बिलकुल छूट गए हों, ऐसी कोई बात स्पष्ट नहीं हो पाती। दूसरी और शाक्त भावना में लगे साधक हैं, जिन्होनें माया की विभीषिका कहीं नहीं देखी। बल्कि उन्हें मुक्तिप्रदा महाशक्ति के रूप में स्वीकार किया। जगदम्बा मान कर उनकी उपासना की। सोचा :- कुपुत्रो जायते क्वचिदपि कुमाता न भवति। कुपुत्र उतपन्न हो सकता है, पर माता कुमाता नहीं हो सकती। अतः इस भावना की दृढ़ता के कारण उपासक अनुभव करता है, की समस्त विश्व प्रपंच तो उसी महामाया की विभूति है। मैं किसे छोडूं या किसे ग्रहण करूँ ? मैं निमित मात्र हूँ, ये बच्चे, पत्नी और परिवार सभी तो उसी की सृष्टि हैं। फिर छोड़ने का अर्थ है – जगजननी की नज़रों से गिरना, अपनी कर्तव्यपरायणता से विमुख होना। अतः शाक्त सम्प्रदाय में वैराग्य का कोई स्थान ही नहीं है।