समता की भावना एक भावना है, जो अपने अंतर में ही विकसित होती है। जिसके अंतर में इस भावना का विकास हो जाता है, उसका दृष्टिकोण अपने आप में कुछ विलक्षण हो जाता है। विषमता की जितनी परिस्थितियां होती हैं वह उनमें किसी को भी स्वीकार नहीं करता। सब परिस्थितियों में साम्य का ही वह दर्शन करना चाहता है। इस अंश में सच्चे अर्थ में उसी व्यक्ति विशेष को विद्रोही कहा जा सकता है।
समता का भाव उच्चतर भाग है जहां व्यक्ति में अन्य की अपेक्षा निर्विविशेषता का अनुभव करता है। वह समझता है कि मैं विशेष नहीं, सामान हूं। मेरा जीवन सामान्य स्तर के व्यक्ति व्यक्ति के समकक्ष है। उनके सुख-दुख जैसे हैं, मेरे भी हैं। उनके जीवन में और अपने जीवन में कोई अंतर नहीं है।
बौद्धिक धरातल पर समता को उतार लेना सहज है। आसानी से सोचा जा सकता है, कि मुझमें और दूसरे में कोई अंतर नहीं है। पर समानुभूति कठिन अनुभूति है, जहां व्यक्ति अनुभव करें कि मुझ में और दूसरे में कोई अंतर नहीं है। यहां बाधक होते हैं सामाजिक परिवेश, व्यक्तिगत संस्कार और स्वार्थ परायणता। इन बंधनों को जो तोड़ सकता हो, वही साम्यभावना या समानुभूति को अपने अंतर में बैठा सकता है। अन्यथा साम्य के लिए नारेबाजी की जा सकती है, साम्यभाव को अपने में लाया नहीं जा सकता। यदि आपने में यह भाव आए नहीं, तो आचरण से उसकी अभिव्यक्ति भी असंभव है, यदि साम्य का आचरण ना हो, तो दूसरों को प्रभावित कर सकना दुःसाध्य है।
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भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है – ऐ अर्जुन, सभी प्राणियों में मैं सम हूं, मेरा ना कोई प्रिय है और ना कोई शत्रु।
“समोऽहं सर्वभूतेषु,
न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।”
वस्तुतः अहं : मैं, आत्मा के लिए, संसार में ना कोई प्रिय है और ना कोई अप्रिय। क्योंकि माना गया है कि आत्मा स्वयं निर्लेप है, अतः उस पर भेदभावना का कोई लेप चढ़ता ही नहीं। प्रत्येक व्यक्ति “मैं कहता हूं, मैं करता हूं”- कहकर मैं के द्वारा उसी आत्मा के अस्तित्व को अपने आप में उदघोषित करता है। परंतु खुलकर अनुभव नहीं कर पाता कि यह “मैं” कौन है ? जो मेरे भीतर से बोल रहा है। इसी आत्मानुभूति के बिना व्यक्ति – व्यक्ति विषमता के विषम रोग को पाले चला जा रहा है। यह वही मूल है, जो जाति भेद, वर्ग भेद, वर्ण भेद आदि अनेकानेक भेद उपभेदों का सर्जन है। यदि प्रत्येक व्यक्ति आत्मानुभूति में लीन हो जाए, तो वह अनुभव करेगा कि यह भेदोपभेद हमारे ऊपर जबरन लादे गए लबादे हैं जिन्हें हम आसानी से उतार फेंक सकते हैं।

भारतीय इतिहास का मध्यकाल साक्षी है कि कबीर : जुलाहा, रैदास : चमार, दादू दयाल :धुनिया, इन निम्न वर्ग के लोगों ने संत कहकर कहा कर वहीं मान्यता दी जो उच्च सवर्ण ब्राह्मण संत को । संतों का संत भाव साम्य का वह धरातल था, जहां आत्मानुभूति के क्षेत्र में अपने भेदभाव नष्ट हो जाते थे और दूसरों के अंतर के भेदभाव को भी नष्ट कर देते थे । कबीर ने साफ शब्दों में कह दिया है –
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तरवारि का पड़ा रहन दो म्यान ।।
वैष्णव संप्रदाय ने भी भक्तों की आत्मा पहचानी, जाती नहीं, वर्ग नहीं, वर्ण नहीं। इसी कारण रसखान : मुसलमान, घनानंद : कायस्थ, सूरदास : ब्राह्मण सबको समभाव से ही अपनाया। वस्तुतः भक्ति की अंतर धारा में गोते लगाने वाले व्यक्तियों में विषमता की गुंजाइश ही कहां रहती है?
“सर्व शून्यं, सर्व क्षणिकम” के उद्घोषक बुद्धवाद ने जब सब कुछ को शून्य और क्षणिक ही मान लिया था, तो उनके समक्ष सामाजिक विषमताओं को मान्यता देने का स्थान ही कहां था ? निदान, जाति, वर्ण और वर्गभेद से किनारे रहकर उसने सबको समान दीक्षाएं दीं। समान स्तर दिया और साम्य भाव की ओर उन्मुख किया।
भगवान आद्य शंकराचार्य ने माना कि “ब्रह्म सत्यं, जगतमिथ्या” , यानि परमात्मा ही सत्य है, संसार तो मिथ्या है। ऐसी स्थिति में वे इस भेद को मान ही कैसे सकते थे? कहा जाता है कि काशी में चांडाल का वेश धारण कर भगवान शंकर ने उनसे शास्त्रार्थ किया और उन्हें पराभूत कर जाति भेद की भावना को उनके अंतर से निकाल फेंका।अद्वैत वेदांत के प्रतिष्ठा करने वाले जगतगुरु शंकराचार्य के द्वैत भाव से परे हुए और वे समाज के उस विषम परिवेश से किनारे हटे, जो परिवेश सामाजिक विषमताओं का जनक है। यही कारण है कि, बौद्ध मत में शताब्दियों से रंगे हुए जनों को अपने नवीन सनातन धर्म में परिवर्तित कर सके। सामान्य ढंग से सोचा जा सकता है, कि शताब्दियों से जो बौद्ध हो गए थे ,उन्हें जन्म के आधार पर किसी विशेष वर्ण में ले लाना तो कठिन था, तब गुण के आधार पर ही वे विशेष वर्णों में बदल गए होंगे। और उस मूल परिस्थिति में जाति भेद के लिए जगह कहां रही होगी?
इस अर्थ में अत्याधिक उदार तांत्रिक संप्रदाय का वाम मार्ग ही दिखलाई पड़ा, जिसने भाव, व्यवहार और आचरण में जाति भेद, वर्ण भेद आदि सब को अस्वीकार कर दिया। उसने स्पष्ट उद्घोषणा किया –
“संप्राप्ते भैरवी – क्षेत्रे सर्वे वर्णा द्विजोतमा”
भैरवी क्षेत्र : तांत्रिक उपासना का स्थल – में पहुंच जाने पर तो सभी वर्ण, चाहे वह कोई हो, कुछ हो, ब्राह्मणों से भी उत्तम हो जाते हैं। इतना ही नहीं, उपासना के क्रम में भगवती की आराधना के लिए उन्होंने माध्यम के रूप में निम्न से निम्न वर्ण की नारियों को चुना और उनकी अर्चनाएं कीं।
इसका स्पष्ट प्रभाव सिद्धों पर पड़ा, जिनमें प्रमुख सिद्ध और कवि सरहपा नें ब्राह्मणों का तिरस्कार किया और निम्न वर्णों की प्रतिष्ठाऐं दी। कहना ना होगा सिद्ध संत सरहपा जातिभेद से वैषम्य से ऊपर उठे हुए व्यक्ति थे। यद्यपि वे ब्राह्मण वर्ण के सिद्धों में से आए हुए थे। आश्चर्य की बात है कि जिस भारतीय संस्कृति ने युग युग से साम्य भावना को अपनी आत्मा में पाले रखा उसे राज्याश्रय क्यों नहीं मिला? क्यों नहीं, राज्यों का गठन आज तक इस रूप में हो पाया? यह एक प्रश्न है। इस पर विचार करते समय मानना पड़ता है कि विचारकों नें अपना स्थान राजा से उच्च ही माना। सामाजिक मान्यताओं नें ऊंचा दर्जा ही दिया । कहा जाता रहा है –
विद्वत्वं च नृपत्वं च न एव तुल्ये कदाचन्।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥
विद्वान और राजा कभी समान नहीं हो सकते। राजा का आदर तो अपने राज्य में ही होता है, पर विद्वान सर्वत्र पूजे जाते हैं। दूसरी बात यह भी है कि राजाओं के राजत्व काल को सदा उन्होंने अचिरस्थाई माना, और माना कि विचारकों के विचार चिरस्थाई हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें अपने और जनता पर भरोसा रहा कि इनमें साम्य भावना आवश्यक है। इनमें विषम भावना नहीं रहेगी, तो समाज विषमताओं के विष से जर्जर होने से बचा रहेगा।
वर्तमान साम्यवाद की आधारशिला ही द्वेष भाव पर, हिंसा पर आधारित है। प्रेम और अहिंसा का इसमें कोई स्थान नहीं। बलात आर्थिक साम्य ले लाने का यह प्रयत्न हिंसा को ही बढ़ावा देता चला जा रहा है। बल्कि भारतीय साम्यवाद में किसी भी प्राणी की हिंसा ना करने की ही उद्घोषणा की गई थी, इसलिए कि उनमें प्राणी मात्र के प्रति समता का भाव बना रहे।
आज जो वर्ग भेद, जाति भेद, वर्ण भेद आदि समाज में दृष्टिगत हो रहे हैं, उनमें एक पक्ष में तो अंधकार है, अपने में उच्च भावना है, स्वार्थ परायणता है, हिंसा है। दूसरे पक्ष में हीन भावना है, द्वेष है, घुटन है, ज्वाला है, और प्रतिहिंसा हैं। ऐसी स्थिति में यह संघर्ष, पता नहीं, हमें कहां ले जाएगा?
संस्कृत की एक सूक्ति में ही साम्य भावना का सुंदर बीच सन्निहित है –
यद यद आत्मनि चेष्टते
तत्त्परस्यापि चिंतयेन।
जो कुछ अपने में, अपने लिए व्यक्ति चाहे, उसे दूसरे के लिए भी सोचे।
-यही भारतीय साम्यवाद का मूल मंत्र है!